सपनों की उड़ान, खोज के सफर और विरासत की दास्तान: मुज़फ़्फ़र अली और शाद अली — सिनेमा के दो खूबसूरत दौर पर गहन विचार-विमर्श
'गमन' से 'ज़ूनी' तक, बातचीत में जीत की दास्तानों, निराशा और वे कोमल सपने शामिल थे जो एक फ़िल्मकार की आत्मा को तराशते हैं
इन-कन्वर्सेशन सत्र में पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने स्मृति की गलियों, संस्कृति के रंगों और उस कला की कारीगरी पर गहरा विचार-विमर्श किया जिसने उनके व्यक्तित्व को संवारा
#IFFIWood, 21 November 2025
इफ्फी में 'सिनेमा और संस्कृति: दो दौर के चिंतन' पर आयोजित 'इन कन्वर्सेशन' सत्र ने भारतीय सिनेमा की अलग-अलग पीढ़ियों के बीच एक सुनहरी खिड़की खोली, जहाँ स्मृति, सपने और कलात्मकता एक पिता-पुत्र के संवाद में गुंथे हुए थे। सत्र की शुरुआत में, जाने-माने फिल्म निर्माता रवि कोट्टारकारा ने इस जोड़ी का अभिनंदन किया और उनके योगदान की गर्मजोशी से सराहना करते हुए, उनके काम के अमिट प्रभाव को स्वीकार किया। इसके बाद, शाद अली ने गर्मजोशी और समझ के साथ सत्र का संचालन किया और अपने पिता, दिग्गज मुज़फ़्फ़र अली को उनके अनुभवों, विचारों और अनमोल सीखों के दशकों पुरानी यादों के गलियारे में ले गए।

शाद अली ने एक सहज-सी दिखने वाली, पर गहन प्रश्न से शुरुआत की: "बचपन में आपने सबसे पहले किस पेशे का सपना देखा था?" मुज़फ़्फ़र अली का उत्तर, बचपन के स्केच, आर्ट-क्लास के पुरस्कारों और कविता के चिरस्थायी आकर्षण की एक सुंदर बुनावट बनकर सामने आया। उन्होंने कहा कि फ़िल्में तो बाद में आईं, जो उन्हें भावनात्मक शुद्धि और एक ऐसा मुक्त आकाश प्रदान करती थीं जहाँ कल्पना, मुख्यधारा की कहानियों के बंधे-बंधाए दृश्यों से आज़ाद होकर उड़ान भर सकती थी। उन्होंने याद किया कि कलकत्ता ने एक ऐसी दुनिया का रास्ता खोला जहाँ सिनेमा और कलात्मकता आपस में जुड़े हुए थे और जहाँ अप्रत्याशित चीज़ें भी संभावनाओं में बदल जाती थीं। अपने निर्माण के मौलिक आधारों की बात करते हुए, उन्होंने विचार व्यक्त किया: “फ़िल्म निर्माण असल में यही है कि आपकी केमिस्ट्री, बॉटनी और जियोलॉजी क्या है।”
अपने शुरुआती वर्षों के दौरान, मुज़फ़्फ़र अली ने पलायन कर रहे लोगों की दुर्दशा और लाचारी को देखा, एक ऐसा अनुभव जो उनकी फ़िल्म 'गमन' का इमोशनल हिस्सा बन गया, जो विस्थापन के दर्द पर आधारित थी। हालाँकि फ़िल्म ने इफ्फी में सिल्वर पीकॉक जीता, मुज़फ़्फ़र अली ने कहा कि उन्हें इस उपलब्धि से कभी कोई विशेष खुशी महसूस नहीं हुई। उन्होंने समझाया कि सफलता ने उन्हें 'सशक्त' महसूस नहीं कराया, बल्कि इसने उन्हें केवल यह याद दिलाया कि नई चुनौतियाँ और नए संघर्ष हमेशा आगे उनका इंतजार कर रहे हैं।

बातचीत का रुख शिल्प और संगीत की ओर मुड़ा। शाद अली ने मुज़फ़्फ़र अली के शुरुआती कार्यों के विशिष्ट मंचन पर टिप्पणी की और पिता ने समझाया कि 'गमन' से लेकर 'उमराव जान' तक, उनकी कार्यशैली में अपनी जड़ों से जुड़े रहना कितना केंद्रीय था। उन्होंने बताया कि संगीत का जन्म कविता, दर्शन और समर्पण से होता है। उन्होंने समझाया कि 'उमराव जान' की धुनें एक ऐसी काव्य संवेदनशीलता से उपजी थीं जो विनम्रता और सहयोग की अपेक्षा रखती थी। उन्होंने कहा, "कविता आपको सपने दिखाती है और कवि को हमारे साथ सपने देखने चाहिए।"
फिर 'ज़ूनी' आई, एक ऐसा सपना जो एक चुनौती बन गया। कश्मीर में एक द्विभाषी फिल्म की योजना बनाने में लॉजिस्टिक, कल्चरल और सीज़नल रुकावटें आईं जिससे आखिरकार प्रोडक्शन रुक गया। मुज़फ़्फ़र अली ने इस अनुभव को "कई सपनों से परे एक सपना" और और इसके टूटने पर दर्दनाक बताया। फिर भी, इसकी अपूर्ण अवस्था में भी, इसकी आत्मा जीवित रही। उन्होंने दर्शकों को याद दिलाया कि कश्मीर महज एक स्थान नहीं है, यह एक जीवंत संस्कृति है। उन्होंने कहा, "कश्मीर के लिए फ़िल्में कश्मीर में ही बननी चाहिए," और स्थानीय युवा प्रतिभाओं से इसकी विरासत को आगे बढ़ाने का आग्रह किया।
शाद अली ने ज़ूनी के चल रहे रेस्टोरेशन, इसके नेगेटिव्स और साउंडट्रैक्स को फिर से देखने और अपने पिता के सिनेमाई विजन से फिर से जुड़ने के बारे में बात की। इस सफर के माध्यम से, उन्होंने विचार किया कि सिनेमा केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि घावों को भर भी सकता है। इस दौरान ज़ूनी: लॉस्ट एंड फाउंड नाम का एक दिल को छू लेने वाला वीडियो चलाया गया, जिसने सपनों, असफलताओं और फ़िल्म को फिर से बनाने की उम्मीद से भरी पिता-पुत्र की इस यात्रा को जीवंत किया।

प्रश्नोत्तर सत्र के दौरान, एक सवाल उठा कि उन फ़िल्मों को कैसे पुनर्जीवित किया जाए जो कश्मीर की सच्ची संस्कृति को दर्शाती हैं, न कि महज गानों के लिए एक सुंदर पर्दे का काम करती हैं। मुजफ़्फ़र अली ने पूरे विश्वास के साथ जवाब दिया: 'ज़ूनी' को ऐसी ही एक फ़िल्म के रूप में सोचा गया था। उन्होंने कहा, "कश्मीर में सब कुछ है।" "आपको प्रतिभा को आमंत्रित करने की ज़रूरत नहीं है, आपको उसे वहीं विकसित करने की ज़रूरत है।"
जैसे ही सत्र समाप्त हुआ, यह स्पष्ट था कि दर्शकों ने केवल एक संवाद नहीं देखा था बल्कि उन्होंने सिनेमा की विरासत की एक झलक पाई थी—वे सपने, संघर्ष और विरासतें जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्नेह, लगन और उम्मीद के साथ संजो कर आगे बढ़ती हैं।
इफ्फी के बारे में
1952 में शुरू हुआ, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) दक्षिण एशिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा सिनेमा सेलिब्रेशन है। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एनएफडीसी) और गोवा राज्य सरकार की एंटरटेनमेंट सोसाइटी ऑफ गोवा (ईएसजी) द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित यह महोत्सव एक वैश्विक सिनेमाई शक्ति केंद्र के रूप में विकसित हुआ है—जहाँ रिस्टोर की गई क्लासिक फिल्में बोल्ड एक्सपेरिमेंट से मिलती हैं और लेजेंडरी निर्माता पहली बार फिल्म बनाने वालों के साथ मंच साझा करते हैं। इफ्फी को वास्तव में जो ख़ास बनाता है, वह है इसका इलेक्ट्रिक मिक्स—इंटरनेशनल कॉम्पिटिशन, कल्चरल शोकेस, मास्टरक्लास, ट्रिब्यूट और हाई-एनर्जी वेव्स फिल्म बाज़ार, जहाँ आइडिया, डील और कोलेबोरेशन एक नई उड़ान भरते हैं। 56वां एडिशन, जो 20-28 नवंबर तक गोवा के खूबसूरत तट पर होगा, दुनिया के मंच पर भारत के क्रिएटिव टैलेंट का एक शानदार सेलिब्रेशन है। यह भाषाओं, स्टाइल, इनोवेशन और आवाज़ों का एक शानदार संगम है।
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